जिन छात्रों के पास महामारी फैलने से पहले काम था, उनमें से लगभग साठ फीसदी बेरोजगार हो गए हैं. बहुत से छात्र फीस और किराया भी नहीं चुका पा रहे हैं.
मुख्य बातेंः
- लॉकडाउन के पहले और बाद हुए सर्वेक्षणों के जरिए छात्रों की आर्थिक स्थिति पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है.
- सर्वे में लगभग एक तिहाई छात्रों ने कहा कि लॉकडाउन के बाद वे भूखे सोये.
- ज्यादातर छात्र आर्थिक दबाव में हैं और किराया देने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं.
यह नई रिपोर्ट हजारों छात्रों के बीच किए गए दो सर्वेक्षणों पर आधारित है. हमने छात्रों पर आर्थिक दबाव को समझने के लिए ऑस्ट्रेलियन ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स के आठ कारक लिए. पहला सर्वे 2019 के आखिरी महीनों में हुआ था. उन्हीं कारकों के साथ 2020 के मध्य में दोबारा सर्वे किया गया.
लॉकडाउन शुरू होने के बाद 29 फीसदी अंतरराष्ट्रीय छात्र भूखे सोये. लॉकडाउन से पहले यह संख्या 7 प्रतिशत थी. 26 फीसदी को पैसे के लिए कुछ सामान बेचना या गिरवी रखना पड़ा. पहले यह संख्या 12 प्रतिशत थी.
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Source: Suppliedे
समय पर बिजली बिल देने में बहुत से छात्रों को दिक्कत हुई. लॉकडाउन से पहले 11 प्रतिशत छात्र बिल भरने में परेशान हुए थे जिनकी संख्या लॉकडाउन के बाद बढ़कर 23 फीसदी हो गई. लॉकडाउन से पहले 4 प्रतिशत छात्रों को सामुदायिक संगठनों से मदद मांगनी पड़ी थी जबकि लॉकडाउन के बाद ऐसे छात्रों की संख्या बढ़कर 23 प्रतिशत हो गई.
महामारी के कारण जिन छात्रों की नौकरियां गईं, उनमें से सिर्फ 15 फीसदी को नई नौकरी मिली है. जिनके पास नौकरी है, उनमें से दो तिहाई छात्रों के काम के घंटे कम हो गए हैं. और ज्यादातर मामलों में यह कटौती 50 फीसदी से ज्यादा है.
महामारी शुरू होने से पहले सर्वे में शामिल आधे छात्रों ने हफ्ते में 500 डॉलर से कम कमाने की बात कही थी. महामारी के बाद 70 प्रतिशत छात्रों की एक हफ्ते की कमाई 500 डॉलर से कम हो गई.
लगभग 20 प्रतिशत छात्रों को यह डर लग रहा है कि वे कभी भी बेघर हो सकते हैं क्योंकि वे किराया नहीं दे पा रहे हैं. 27 प्रतिशत छात्र पूरा किराया देने में विफल रहे.
एक छात्रा ने अपनी नौकरी जाने के बाद के हालात को कुछ यूं बयां किया.
फरवरी और मार्च में मैंने कुछ पैसे बचा लिए थे. तो अप्रैल तो निकल गया. लेकिन मई में मैं बहुत परेशान थी क्योंकि मेरे पैसे खत्म हो रहे थे. मैं लगातार संस्थाओं को मदद के लिए फोन कर रही थी.
सर्वे में शामिल लगभग आधे छात्रों ने किराये में कमी के लिए मकान मालिकों से बात की. लेकिन सिर्फ 22 फीसदी को ही किराय में राहत मिल पाई. आधे से ज्यादा को कोई राहत नहीं मिली.
मेलर्बन में एक यूनिवर्सिटी की छात्रा बताती है, “हां चिंता तो हो रही है. हम अपनी एजेंसी को छूट या राहत के लिए मेल कर रहे हैं लेकिन उन्होंने कहा कि मुश्किल है. क्योंकि मकानमालिक को भी लोन की किश्त देनी है. इसलिए कोई राहत नहीं मिलेगी. हम तीनों की नौकरी चली गई है.”
लगभग 60 फीसदी छात्रों ने कहा कि आर्थिक दबाव उनकी पढ़ाई को प्रभावित कर रहा है. 44 फीसदी को चिंता है कि वे फीस कैसे भरेंगे. और एक तिहाई को तो लगता है कि पढ़ाई पूरी किए बिना ही उन्हें ऑस्ट्रेलिया से जाना पड़ सकता है.
सर्वे में शामिल छात्रों को नहीं लगता कि सरकारों ने उनकी मदद की. 17 फीसदी छात्रों ने राज्य सरकार की मदद को अच्छा या बहुत अच्छा बताया जबकि केंद्र सरकार के बारे में ऐसा मानने वाले सिर्फ 13 फीसदी थे. एक छात्र ने कहा कि इस महामारी में सरकार ने एक बात साफ कर दी है कि उन्हें छात्रों की जरा भी परवाह नहीं है.
पहला सर्वे 2019 के आखिर में 43 संस्थानों के बीच बांटा गया था जिनमें 24 वोकेशनल, 10 विश्वविद्यालय, 7 अंग्रेजी भाषा स्कूल और दो फाउंडेशन संस्थान थे. इनमें 7084 छात्रों ने जवाब दिए.
दूसरा सर्वे जून-जुलाई 2020 में पहले सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले 3,114 छात्रों को दिया गया. ये वैसे लोग थे जो आमने-सामने मुलाकात करने और दोबारा बात करने के लिए सहमत हुए थे. दूसरे सर्वे में 852 लोगों के जवाब मिले.
ऐलन मॉरिस यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी सिडनी में प्रोफेसर हैं. उन्हें ऑस्ट्रेलियन रिसर्च काउंसिल से फंड मिलता है.
गैबी रामिया यूनिवर्सिटी और सिडनी में पब्लिक पॉलिसी के असोसिएट प्रोफेसर हैं. उन्हें ऑस्ट्रेलियन रिसर्च काउंसिल से फंड मिलता है.
शॉन विल्सन मैक्वॉयरी यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के असोसिएट प्रोफेसर हैं. उन्हें ऑस्ट्रेलियन रिसर्च काउंसिल से फंड मिलता है.
कैथरीन हेस्टिंग्स और एमा मिचेल यूनिटवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी सिडनी के पब्लिक पॉलिसी ऐंड गवर्नेंस इंस्टिट्यटू में सहयोगी शोधकर्ता हैं. वे ऐसे किसी संगठन या संस्था के लिए काम नहीं करतीं और जिसे इस लेख से लाभ हो.